Chandauli : मिनी महानगर मुग़लसराय में प्रतिदिन लगती है मजदूरों की मंडी

चंदौली। यह तस्वीर चंदौली जिले के मिनी महानगर पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर (मुग़लसराय) के जीटी रोड़ स्थित जामा मस्जिद की है। जहां हर रोज सैकड़ों मजदूरों की मंडी लगती है। जहाँ रोज लोग आते हैं और मजदूरों की बोली लगाकर उसे अपने काम के लिए तय करते हैं और अपने दिए हुए कीमत पर साथ ले जाते हैं। ऐसा यह एक दिन का नहीं बल्कि प्रतिदिन का हाल है। ऐसे में इन मजदूरों को काम मिला तो ठीक वरना खाली हाथ अपने घर को लौट जाते हैं।
आज 1 मई है यह तारीख अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज हम देश में मजदूरों के क्या हालात है इस पर हम मजदूरों से उनकी राय जानेंगे। जानेंगे बढ़ती महंगाई के बीच उनकी दिहाड़ी में इजाफा हुआ या नहीं, या आज भी वो पुरानी कीमतों पर ही अपना पूरा दिन किसी और के नाम करने को मजबुर हैं।
लोगों को याद नहीं कब से लग रही यह मंडी :
हम बात कर रहे हैं चंदौली जिले के मिनी महानगर पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर (मुगलसराय) की। जहां प्रतिदिन सैकड़ों मजदूरों की मंडी लगती है। इन मजदूरों की नजरें सुबह से लेकर दोपहर तक काम की तलाश में जुटी रहती है। कोई भी व्यक्ति इनके बीच आकर खड़ा हो जाता है तो यह सभी लोग शेयर करें अपनी मजदूरी तय करने के प्रयास में जुड़ जाते हैं। ऐसा नहीं कि यह एक दिन बाद है बल्कि प्रतिदिन इन मजदूरों का यही हाल है। स्थानीय लोगों की माने तो उन्हें भी याद नहीं कि यह मजदूरों की मंडी कब से लग रही है। उनका मानना है जबसे उन्होंने होश संभाला है यहां मजदूरों के मंडी देखते आ रहे हैं।
प्रतिदिन कुछ मजदूर लौटते हैं खाली हाथ :
कड़ी धूप हो या कड़ाके की ठंड या झमाझम होती बरसात हमेशा यहां मजदूरों की मंडी लगती है। जिन्हें जरूरत होती है वह लोग यहां आते हैं और अपने दिए हुए कीमत पर मजदूरों को तय करके अपने काम के लिए ले जाते हैं। सुबह से लेकर दोपहर तक कुछ मजदूरों को काम मिल जाता है वहीं कुछ मजदूर खाली हाथ ही घर वापस लौट जाते हैं।

दूर-दूर से आते हैं मजदूर :
मजदूरों के मंडी में खड़ा रमेश भी मजदूरी का काम करता है रमेश का कहना है कि वह प्रतिदिन सकलडीहा से मुगलसराय साइकिल से आता है। इसके बाद भी उसे प्रतिदिन काम नहीं मिल पाता। रमेश का कहना है कि महीने में लगभग 10 से 15 दिन या 20 दिनों तक ही काम मिल पाता है। जिससे वह छह से आठ हजार रुपए तक कमा लेता है। उन्हीं पैसों से वो अपने परिवार को दो वक्त की रोटी खिला पाता। रमेश ने बताया कि उन्हें मजदूरी उनके मन माफिक नहीं मिलती। बल्कि जिन्हें जरूरत है वो तय करते हैं कि वो क्या देंगे। ऐसे में खाली हाथ घर जाने से बेहतर लगता है जो पैसे मिल रहे हैं उसी में काम कर लिया जाए। क्यों अगर हम मना करते है तो यहाँ हमारे जैसे और भी मजदूर हैं। जिन्हें पैसों की जरूरत है, वो काम करने चले जाएंगे।
बच्चों के छोटे सपने भी नहीं हो पाते पूरे :
वही एक 50 वर्षीय अधेड़ मजदूर ने पाया कि साहब हम प्रतिदिन इस मंडी में काम की तलाश में आते हैं। काम मिला तो ठीक वरना उस दिन खाली हाथ ही घर वापस जाना पड़ता है। महीने भर के प्रयास में जो कुछ दिन काम कर पाते हैं उनसे मिले पैसों से सिर्फ हमारा दो वक्त की रोटी का गुजारा हो पाता है। इसके अलावा उन पैसों से हम अपने बच्चों के छोटे सपने भी पूरे नहीं कर पाते।
सरकार की तमाम योजनाएं आती है और चली जाती है। उसके बाद भी यह मजदूर मंडी प्रतिदिन लगती है। जिले में श्रम विभाग के कार्यालय भी हैं। जहाँ मजदूरों के रजिस्ट्रेशन किए जाते हैं। इस मजदूर मंडी के बारे में श्रम विभाग को पता होना चाहिए। और अगर पता है तो इन मजदूरों के रजिस्ट्रेशन भी होने चाहिए, और अगर अब भी इनका रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है तो इसका जिम्मेदार कौन है ?